क्या आप प्रियंका को जानते है... नहीं जानते होंगे तो अभी जान जाएंगे प्रियंका कौन है. चलिए मैं आपको प्रियंका के बारे में थोड़ी सी जानकारी देता हूं. प्रियंका अपने शहर इंदौर को छोड़कर एक चैनल में काम करने के लिए कुछ साल पहले रायपुर आई थी. मेरी उससे पहली मुलाकात एक पत्रकारवार्ता में हुई थी. यह परिचय बड़ा सामान्य सा था. हैलो सर... हाय सर... आप क्या बीट देखते हैं .. जैसा कुछ., लेकिन मैं यह सोचकर ही खुश था कि चलो एक लड़की अब उन भकले और जोजवे लोगों के बीच आ गई है जो घर छोड़कर पत्रकारिता करने की बात पर अपनी नानी और दादी का गला दबा देते हैं. मेरा मतलब उन पत्रकारों से है जिन्हें प्रबंधन की तरफ से जैसे ही यह सूचना मिलती है कि अब उन्हें दिल्ली या बंबई के कार्यालय में शिफ्ट किया जा रहा है तो वे अपनी दादी या नानी की तेहरवी का कार्ड लेकर संपादक या मालिक के पास खड़े हो जाते हैं. जो कार्ड लेकर खड़े नहीं होते वे नेताओं के पास पहुंचकर मालिकों तक सिफारिश पहुंचाने में लग जाते हैं.... अरे सर आपका आदमी हूं... कब आपका ख्याल नहीं रखा.. कोई तकलीफ हो तो बोलिए... बस एक फोन कर दीजिए. कोई इसे माने या न माने लेकिन यह सच है कि देश के बड़े मीडिया संस्थानों की तरह छत्तीसगढ़ की मीडिया में राजनीतिक नियुक्तियां होने लगी है. मैं आपको एक रोचक वाक्या बताना चाहता हूं. जब मैं जनसत्ता में काम करता था तो एक पत्रकार हर तीसरे रोज अपने चाचा, भांजा, मौसी, चाची, फूफी को ठिकाने लगाते हुए मेरे सामने आ धमकता था. एक रोज जब वह हमेशा की तरह छुट्टी मांगने आया तो मैंने स्वाभाविक तौर पर पूछ लिया, क्यों भाई आज किसका इंतकाल हो गया. पत्रकार ने भी बेशर्मी से उत्तर दिया, सर तीन दिन पहले मौसा निपट गए थे, अब सदमे में मौसी चली गई. मैंने पूछा- कैसे तो वह बोला, कुछ नहीं सर... जब ग्रह- नक्षत्र खराब चलते हैं तो किसी न किसी को ऊपर जाकर हाजिरी लगानी ही पड़ती है. मैंने उसे छुट्टी तो दी ही लेकिन साथ ही पैसों से भी मदद की. इधर से उधर से फोन नंबर लेकर जब मैंने उसके घर में फोन लगाया तो सन्न रह गया. पत्रकार के पिताश्री ने फोन उठाया था. मैंने मौसी के मरने पर दुख प्रकट किया तो उन्होंने उल्टा मुझसे पूछा अरे कब मर गई. मैंने उन्हें बताया अभी-अभी आपके बेटे ने बताया है तो वे मामला समझ गए. उन्होंने बताया, साहब... मेरा पत्रकार बेटा आपके यहां काम करने के पहले जहां काम करता था वहां तो उसने मुझको ही मार दिया था. इस सूचना के बाद मैं कई दिनों तक यही बात सोचकर पागल रहा कि आखिर कोई कैसे अपने जिंदा बाप को मार सकता है. मैं इस बात से परेशान चल ही रहा था कि कुछ ही दिनों में एक मीडियाकर्मी ने मेरी मुश्किल और बढ़ा दी. जिस मीडियाकर्मी का यहां मैं जिक्र कर रहा हूं उसका नाम नहीं लिख रहा हूं. बस उसके बारे में इतना बता सकता हूं यह पत्रकार जरूरत से ज्यादा बात करता है यानि बड़बोला है और मुफ्त की शराब पीने का आदी है. इस मीडियाकर्मी ने ढाई साल पहले संपन्न हुए विधानसभा चुनाव के दौरान एक मंत्री के लिए जमकर दलाली की थी. जब यह बात खुल गई तो दलाली नहीं करने वाले मीडियाकर्मियों ने उसकी जमकर धुनाई भी की थी. तो पाठकों इस कथित मीडियाकर्मी ने सरकार के एक विभाग से पैसा निकालने के लिए अपने सगे बाप को अस्पताल में हार्ट अटैक हो गया है कहकर एडमिड होना बता दिया था. पत्रकार के पिता जिस तिथि को अस्पताल में एडमिट थे उसी तिथि को वे तत्कालीन गृहमंत्री के यहां मिट्टी तेल का डिब्बा लेकर भी खड़े हुए थे. सौभाग्य से मैं मंत्री महोदय के घर गया हुआ था. मुझे पत्रकार मित्र के पिता को देखकर हैरत हुई. मैंने उनसे पूछा- आपको तो अस्पताल में होना चाहिए था. वे बोले, पिछले कुछ दिनों से मेरा मन प्रफुल्लित नहीं चल रहा है इसलिए अब सोचा है कि कुछ करना है. मैं मिट्टी का डिब्बा लेकर मंत्री जी के पास इसलिए आया हूं क्योंकि मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि आमजनता को मिट्टी का तेल क्यों नहीं मिल रहा है. मीडियाकर्मी के पूज्यनीय पिताजी जिस मंत्री के घर पर खड़े थे उस दौरान उस मंत्री के पास गृह विभाग का प्रभार था. मुझे हैरत हुई कि भला गृहमंत्री मिट्टी तेल कैसे दिला सकता है. बाद में पता चला कि पूज्य पापाजी मिट्टी तेल के साथ-साथ अपने छोटे लड़के के द्वारा संचालित किए जाने वाले एनजीओ को काम देने की सिफारिश करने भी गए हुए थे. ( टीप- छत्तीसगढ़ का न्यूज चैनल पुराण की तरह यह लेख भी मैं पत्रकारों की प्रवृतियों को केंद्र में रखकर ही लिख रहा हूं. काफी पहले जब मैंने छत्तीसगढ़ का न्यूज चैनल पुराण लिखा था तो पाठकों के एक बड़े वर्ग ने उसे खूब पंसद किया था लेकिन कुछ टुच्चे नाराज हो गए थे, विशेषकर वे टुच्चे जो किसी न किसी न रूप में अपने आपको लेख में शामिल पा रहे थे. लेख के बाद टुच्चों ने गाली-गलौच का पूरा एक दौर चलाया और आखिरकार उन लोगों को पीछे हटना पड़ा था जिन्होंने इधर-उधर के फर्जी नामों के जरिए अपने बाप तक को बदल डाला था.) हां.. बात फिर से प्रियंका की. तो पहली और सामान्य सी मुलाकात के बाद मैं प्रियंका को भूल गया, लेकिन एक रोज जब मैं बूढ़ा तालाब के धरना स्थल से गुजर रहा था तो मैंने देखा ढेर सारे लोग प्रियंका को घेरकर खड़े हुए हैं. शायद किसी कर्मचारी संगठन का आंदोलन था. मैं भी अपनी मोटर साइकिल किनारे लगाकर भीड़ में शामिल हो गया. कर्मचारी प्रियंका को अपनी समस्या बताते जा रहे थे और वह भी सबकी बात को गौर से सुन रही थी.थोड़ी ही देर में उसने सारे कर्मचारियों को लामबंद कर अपने चैनल के लिए ठीक-ठाक शाट तैयार कर लिए और माइक थामकर पीटूसी ( फेस टू कैमरा) भी कर लिया.जब उसकी नजर मुझ पर पड़ी तो उसने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा, अरे सर आप यहां. क्या आप कर्मचारी संगठन भी देखते है. मैंने उसे यह नहीं बताया कि मैं तुम्हें भीड़ में घिरा देखकर रूका हूं. उस रोज भी सामान्य सी बात हुई और मैं एक बार फिर अपने काम में मशगूल हो गया. कुछ दिनों बाद वह मुझे कांग्रेस भवन में मिली. यहां भी जब उसने कांग्रेस की बनती-बिगड़ती स्थिति को लेकर चर्चा की तो मुझे लगा कि प्रियंका ने काफी कम समय में कांग्रेस की स्थिति को समझ लिया है. थोड़े ही दिनों में उसने अपने कुशाग्र होने का परिचय देते हुए प्रदेश की पत्रकारिता में अपनी खास पहचान और धमक बना ली. विधानसभा चुनाव के दौरान उसने काफी बड़े कव्हरेज किए. प्रदेश का शायद ही कोई बड़ा नेता होगा जिसके साथ प्रियंका ने दौरा नहीं किया होगा. प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी और मुख्यमंत्री डाक्टर रमनसिंह को लेकर उसकी कव्हरेज को कम से कम मैं तो मील का पत्थर ही मानता हूं. यह मानने की वजह भी है क्योंकि उन दिनों मैं सभी चैनलों के राजनीतिक कार्यक्रमों को गौर से देख रहा था. एक चैनल के दाढ़ी वाले पत्रकार की अटक-अटककर की गई चमचाई तो काफी सुर्खियों में थी. इसके अलावा दाढ़ी वाले के यहां काम करने वाले उदय चोपड़ाओं का काम और उनकी नेतागिरी भी लोगों को नजर आ रही थी. इन सारी बातों का यहां जिक्र करने के पीछे मेरा मतलब सिर्फ इतना है कि प्रियंका भीड़ से अलग लड़की थी. उसके काम की खूशबू हवा में लगातार फैल रही थी.पाठक यह न समझे कि प्रियंका के साथ कुछ ऐसी- वैसी बात हो गई है.प्रियंका है ..लेकिन अब वह मेरे शहर में नहीं है. लगभग दो दिन पहले ही वह रायपुर को छोड़कर भोपाल चली गई. पता चला है कि वह किसी नए चैनल को ज्वाइन कर रही है. यह चैनल कौन सा होगा यह नहीं मालूम लेकिन जानकार बताते हैं कि कुछ लोगों ने उसे साजिशों के तहत उसे यह शहर छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया. कुछ जिम्मेदार लोगों की बातों पर यकीन करें तो उसके चौतरफा नाम और काम की धमक कुछ लोगों को नागवार गुजर रही थी. प्रतिभा से जलने वाले तत्व सक्रिय हो गए थे. इन तत्वों ने प्रियंका को ठिकाने लगाने का रास्ता बनाया. इसमें कुछ ऐसे लोग भी शामिल हुए जिनका एकमात्र काम लिखने-पढ़ने वालों को ठिकाने लगाने का रहा है. ऐसे लोग कहीं ओएसडी बने हुए हैं तो कहीं दशरथ के परिवार की व्यथा लिखकर अपने चमचों के जरिए उसे पांडुलिपि में छपवाकर पीएचडी करने की जुगत में लगे हुए हैं. ऐसे लोग अपने इरादों में सफल हो गए. प्रियंका के साथ खबरों के लिए दौड़-धूंप करने वाले कुछ लोगों ने बताया कि अब प्रियंका की जगह किसी ऐसे व्यक्ति को काम दे दिया गया है जिसने अपने पूर्व संस्थान में एक लड़की के साथ काफी बुरा सलूक किया था. वह लड़की जो खुद भी एक पत्रकार है, ने अपने साथ हुए घटनाक्रम की जानकारी प्रबंध संपादक को मुहैय्या कराई थी. अखबार के प्रबंध संपादक जो एक उम्दा इंसान है उन्होंने मामले में तुरंत ही एक्शन लेते हुए लड़की के साथ भेड़िया व्यवहार करने वाले पत्रकार को पद से हटा दिया था. खैर.. प्रियंका तो चली गई लेकिन दो-चार छोटी सी बातें मेरे जेहन में तैर रही है वह मैं आपसे शेयर कर लेता हूं. पहली बात तो यह है कि आखिरकार हम कब तक लड़कियों का आगे बढ़ना बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे. एक लड़की यदि अपने सृजनात्मक काम से हमें चौंका देती है तो क्या हमें जलन होनी चाहिए. क्या लड़की जिंदगी भऱ सुई धागा थामकर चिड़ियां-मिठ्ठू ही बनाते रहेगी. क्यों हम उससे राजनीतिक बहस की उम्मीद नहीं कर सकते. एक लड़की यदि बोलती है, जुबान खोलती है तो उसे ही-ही भक-भक करने वाला ही क्यों मान लिया जाता है. मुझे अपने शहर के उन बुद्धिजीवियों और नेताओं पर भी हैरत होती है जो कभी यह जानने की कोशिश नहीं करते कि एक अखबार में अच्छा भला चलता हुआ कालम क्यों बंद हो जाता है. क्यों एक पत्रकार काम करते हुए अचानक नौकरी से निकाल दिया जाता है. अरे भाई जो दूसरों की कविताओं को चोरी करके कालम लिखते हैं उनके बारे में तो मत पूछिए लेकिन जो अपनी मौलिकता से अपनी दस्तक दे रहे हैं कम से उनके बारे में तो यह जानिए कि ऐसा कौन सा कारण था जिसके कारण उनके लिखने पढ़ने पर रोक लगा दी गई है.प्रियंका एक बेहद खराब समय में धान घोटाला व अन्य कई जरूरी मुद्दों पर बातचीत कर रही थी, लेकिन किसी ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि वह क्यों इस शहर को छोड़कर चली गई. जाने से पहले उसे विधानसभा की सर्वश्रेष्ठ रिपोर्टिंग के लिए पुरस्कार भी दिया गया, लेकिन प्रियंका से एक दो को छोड़कर शायद किसी ने यह नहीं पूछा कि आखिरकार वह क्यों हमारे शहर को छोड़कर जा रही है. उन नेताओं ने भी नहीं जो छोटी सी छोटी खबर के लिए सीधे मालिकों से बात करते रहते हैं. उन अफसरों ने भी नहीं जो मालिकों को बुलाकर कहते हैं- अपने पत्रकार भूखा-प्यासा मत भेजा करिए थाली छीनकर खाने के लिए लड़ना पड़ता है उसे. सच तो यह है कि पकते हुए दाल की खूश्बू की तरह हर शहर में छा जाने वाली एक लड़की का नाम है प्रियंका. वह हमारे कठिन समय की सबसे कीमती संभावना है. मेरी इस बात को आप हल्के में मत लीजिए. एक दिन आप प्रियंका को चमत्कार करते हुए देखेंगे. आंखों में बदलाव का सपना पालकर चलने वाली प्रियंका को मैं तो हमेशा याद रखने वाला हूं. उम्मीद करता हूं आप लोग भी उसे याद रखेंगे.लड़कियां तो विदा लेती ही है लेकिन कोई लड़की मेरे शहर से इस ढंग से विदा हो जाएगी इसकी कल्पना मैंने नहीं की थी. आप जिस शहर में रहते हैं वहां भी कोई न कोई प्रियंका रहती ही होगी. मेरा आपसे निवेदन है उसे यूं ही विदा मत होने दीजिएगा.अब तो आप जान गए न मैं किस प्रियंका की बात कर रहा हूं...... नमस्कार.
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