जिन दिनों पोस्टरों पर कविताएं लिखी जा रही थी उन दिनों कम शब्दों में सीधी बात कहने की एक परम्परा सी चल पड़ी थी। ऐसा नहीं है कि लेखकों के एक बड़े वर्ग ने या यूं कहें काफी हाउस में काली काफी पर सिगरेट की राख झाड़ने वाले लेखकों ने पोस्टर कविताओं पर विमर्श करना जारी नहीं रखा है। महंगी सिगरेट और रात को स्काच के साथ एक औरत की देह में प्रवेश करने की पूरी संभावनाओं के बीच कुछ लोग पिसल जाने वाले कागज पर कविता देखना चाहते हैं। शायद यही एक वजह है कि अब कविताओं के ज्यादातर पोस्टर लेखकों के सम्मेलन में ही चस्पा होते हैं। जब सम्मेलन बिना किसी निष्कर्ष के समाप्त हो जाता है तो पोस्टरों को फिर किसी अगले सम्मेलन के लिए सुरक्षित रख लिया जाता है। अब सड़कों पर पोस्टर चिपकाकर कविता समझाने का दौर शायद खत्म हो गया है।
(इस टिप्पणी का इस कविता से कोई संबंध नहीं... हां यह कविता कभी पोस्टर में लिखी जरूर गई थी)
पेपरवेट
पेपरवेट हल्का है
कही अधिक भारी है
एक दबा हुआ पेज
जिस पर लिखी गई है
एक तेजधार
कविता
कागज
कागज का हाशिया
बना होता है
माचिस की तीलियों से
और...
समूची की समूची लकीरें
बिजली का नंगा तार होती है
(इस टिप्पणी का इस कविता से कोई संबंध नहीं... हां यह कविता कभी पोस्टर में लिखी जरूर गई थी)
पेपरवेट
पेपरवेट हल्का है
कही अधिक भारी है
एक दबा हुआ पेज
जिस पर लिखी गई है
एक तेजधार
कविता
कागज
कागज का हाशिया
बना होता है
माचिस की तीलियों से
और...
समूची की समूची लकीरें
बिजली का नंगा तार होती है
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