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Sunday, May 9, 2010

माई के लालों जरा शहीद हो चुके जवानों की माई के बारे मे भी सोचो


देख रहा हूं लोग माताराम को याद कर किस तरह से आंसू बहा रहे हैं। किसी को माताओं के वृद्धाश्रम में जाने की चिन्ता सताए जा रही है तो किसी को लहसून-प्याज चटनी के साथ रोटी में मां की सूरत नजर आ रही है। कोई.. मां तू कितनी अच्छी है प्यारी.. प्यारी है गाकर दिल बहला रहा है तो किसी को मां का थप्पड़ याद आ रहा है। मां को एक दिन याद करना तो अच्छी बात नहीं है लेकिन फिर भी जो लोग याद कर रहे हैं भगवान उनका और उनकी मां का भला करें। माई के लालों से मेरा सिर्फ इतना आग्रह है कि मदर्स डे पर अपनी और फिल्म वाली निरूपाराय जैसी मां को याद करने के अलावा उन माताओं को भी याद करें जिन्होंने नक्सली हिंसा में एक बार फिर अपने बेटों को खो दिया है।

जी हां.. छत्तीसगढ़ में नक्सली हिंसा के चलते कुछ माताओं के लिए मदर्सडे गहरे अवसाद का दिन बनकर आया है। कल यानी 8 मई 2010 को एक बार फिर नक्सलियों सीआरपीएफ के जवानों पर बड़ा हमला बोलकर लगभग आठ जवानों को मौत के घाट उतार दिया था। जवानों की माताओं तक यह सूचना आज यानी 9 मई को पहुंची है। मदर्सडे पर माताओं को कितना बड़ा और क्रूर तोहफा मिला है यह बताने की जरूरत शायद नहीं है।

छत्तीसगढ़ में ऐसा पहली बार नहीं हुआ। इससे पहले भी जब कोई मां दीवाली या दशहरे में अपने बच्चे के लौटने का इन्तजार करती रही है तब उसके पास एक न एक बुरी खबर ऐसी पहुंचती रही है कि माई अब तुम्हारा बेटा नहीं लौटने वाला। मैं हर बार ऐसी तस्वीरों को देखने के लिए विवश होता रहता हूं जिसमें कोई मां मुंह में आंचल दबाकर रोती हुई दिखती है। बंगाल, बिहार और भी न जाने कितनी जगहों की मांए अपने बेटों के मरने की खबर सुनकर लाठी थाम छत्तीसगढ़ आ जाती है। यहां आने के बाद उन्हें सरकार की तरफ से सम्मान तो मिल जाता है लेकिन नहीं मिल पाती है तो बेटों की मुस्कान। नक्सलियों की गोली से मुंह फाड़े आसमान की ओर ताक रहे बेटे जैसे अपनी मां से ही पूछते हैं- मां तू रोना मत। कहती थी न तेरे बेटे पर फौज का कपड़ा अच्छा फब रहा है। देख मां अब तो कपड़ा भी जल जाएगा। अपने जवान बेटों की लाश के लिए छत्तीसगढ़ पहुंचने वाली माताओं की आंखे पथरा चुकी है। इन आंखों से अब आंसू भी नहीं गिरते।

जब छत्तीसगढ़ का निर्माण नहीं हुआ था तब भी नक्सली वारदात यहां हुआ करती थी लेकिन तब शायद नक्सलियों और सरकार के बीच सीधी लड़ाई हुआ करती थी। बेशक पुलिसवाले उनके वर्गशत्रु पहले भी थे लेकिन तब शायद उतना गुरिल्लायुद्ध नहीं हुआ करता था जितना अब हो रहा है। पुलिस के आलाअफसर मानने लगे कि पुलिस का खुफिया तंत्र कमजोर हो चला है। इस खुफिया तंत्र के चलते नक्सली पुलिस पर भारी पड़ रहे हैं। अभी एक महीने पहले ही 6 अप्रैल 2010 को नक्सलियों ने दंतेवाड़ा के तालमेटला के पास 76 जवानों को मौत के घाट उतार डाला था। ठीक एक महीने बाद नक्सलियों ने एक बार फिर बीजापुर के करीब के एक गांव कोड़ेनाल में बुलेटफ्रूफ वाहन पर सवार होकर आ रहे 8 जवानों को अपना शिकार बनाया है। राज्य बनने के बाद पुलिस और नक्सलियों के बीच मुठभेड़ की कुल 1661 वारदात हो चुकी है। इन वारदातों में नक्सलियों ने कुल 11 सौ 13 लोगों को मौत के घाट उतार डाला है। सरकारी आंकड़ा कहता है कि नक्सलियों के द्वारा किए गए हमले में लगभग छह सौ से ज्यादा सैनिक शहीद हुए हैं। गोपनीय सैनिकों की संख्या 26 और विशेष पुलिस अधिकारियों की संख्या 153 बताई गई है, लेकिन जरा सोचिए... क्या वाकई इतने ही लोग मारे गए हैं। शायद नहीं... एक परिवार से जब एक कमाने-खाने वाला गुजर जाता है तो फिर उस परिवार में मात्र एक मौत नहीं होती। मदर्स डे पर मैं शहीदों की माताओं को याद कर रहा हूं। मैं जानता हूं कि मेरे अलावा और भी बहुत से लोग होंगे जो एक दिलेर माताराम को खोज रहे होंगे।

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