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Saturday, May 29, 2010

भेड़चाल का शिकार हुई छत्तीसगढ़ी फिल्में

भेड़चाल का शिकार हुई छत्तीसगढ़ी फिल्में

भले ही मोटे तौर पर यह प्रचारित किया जा रहा है कि छत्तीसगढ़ी फिल्में बाजार में अच्छा बिजनेस कर रही है लेकिन हकीकत इससे अलहदा है। मोर छइंया-भुईयां की सफलता के बाद अब तक सैकड़ो फिल्में बन चुकी है लेकिन मात्र पांच-सात फिल्मों को छोड़कर किसी भी फिल्म ने ऐसा व्यवसाय नहीं किया है जिसे उल्लेखनीय माना जा सकें। अधकचरी तकनीक और मुबंईयां फार्मूले पर बनने वाली फिल्मों को दर्शकों ने बुरी तरह से नकार दिया है। छत्तीसगढ़ की फिल्मों को अब तक बालकनी के दर्शक नसीब नहीं हो पाए हैं।

मुबंई में रहकर गोविन्दा के लिए फिल्म लिखने वाले सतीश जैन ने जब मोर छइंया-भुईया का निर्माण किया था तब किसी को भी यह उम्मीद नहीं थी कि फिल्म सुपर-डुपर हिट हो जाएगी और कई हिन्दी फिल्मों का रिकार्ड तोड़ देगी। फिल्म की कहानी कोई ऐसी नहीं थी जिसे दर्शकों ने सैकड़ों बार न देखा हो लेकिन राज्य निर्माण के जोश ने छबिगृहों में दर्शकों की भीड़ बढ़ा दी। जब छत्तीसगढ़ राज्य का निर्माण हुआ तब हर छत्तीसगढ़ी को यह लग रहा था कि अब सब कुछ उसका अपना है। इसी अपनेपन के चक्कर में उसने छइयां-भुईया पर भी प्यार लुटाया और फिल्म हिट हो गई। फिल्म की सफलता के बाद जिसे देखो वही फिल्म बनाने के धंधे में लग गया। जिसकी राइस मिल थी वह भी फिल्म बनाने लग गया और जो पान ठेला चलाता था वह भी अपने आपको शत्रुघ्न सिन्हा समझने लग गया।

चूंकि बाक्स आफिस पर पहली सफल फिल्म मोर छइंया-भुईया थी इसलिए हर दूसरा निर्माता मोर शब्द को महत्व देने लगा। छत्तीसगढ़ी में मोर का मतलब मेरा होता है। मोर छइंया-भुईया के बाद मोर संग चल मितवा, मोर संग चलव,मोर धरती मैय्या, मोर गंवई गांव, मोर करम-मोर धरम, मोर गांव जैसी फिल्मे प्रदर्शित तो हुई लेकिन इनमें से एक भी फिल्म ने लागत नहीं निकाली। थोड़े समय जब एक शून्य आया तो कांग्रेस से जुड़े फिल्म निर्देशक प्रेम चंद्राकर ने मया देदे मया लेले नामक एक पारिवारिक फिल्म का निर्माण किया। यह फिल्म थोड़ी-बहुत चली लेकिन इसे मोर छंइया-भुईया जैसी सफलता नहीं मिली। इस आंशिक सफलता के बाद एक बार फिर लोग मया शब्द के पीछे पड़ गए। कुछ ही दिनों में परदेशी के मया, तोर मया के मारे, मया, मया के फूल, मया के बरखा जैसी फिल्में आ गई। अभी मया के डोरी, मया के छांव में मोहनी मया के और दीगर प्रांत के लोगों को कोसने का काम करने वाली मया देदे मयारू का आना बाकी है।

राज्य को बने दस साल हो चुके हैं। इन सालों में किसी भी एक फिल्म ने छत्तीसगढ़ के आम आदमी को किसी तरह की पहचान देने का काम नहीं किया है। छत्तीसगढ़ का आदमी काफी भोला कहलाता है लेकिन किसी भी निर्माता ने यह नहीं बताया कि यहां का मूल आदमी किस तरह से भोला है। बस फिल्मों में भोला शब्द का इस्तेमाल होता रहा। ढाई से तीन घंटे की फिल्म में छत्तीसगढ़ के भोले आदमी को निर्देशक हर आधे घंटे में मरियल सी हिरोइनों के साथ खेत में बेक्र डांस करवाता रहा है। दस सालों में फिल्म के सारे पात्र चिरकुट बनकर रह गए हैं। थोड़े अच्छे शब्दों में कहे तो मुबंईया मसाले के साथ संस्कृति को ठूंसने का काम करने वाले फिल्मकारों ने हर पात्र में इतना अधिक छुटभैय्यापन घुसेड़ डाला है कि किसी भी पात्र की कोई सामाजिक हैसियत नहीं बन पाई है। इसी छुटभैय्येपन के कारण छत्तीसगढ़ के अभिनेताओं को लोग गंभीरता से नहीं लेते। जबकि दक्षिण भारत में ऐसा नहीं है। वहां फिल्म अभिनेताओं की एक खास इमेज बनी हुई है। वहां के अभिनेताओं की एक अपील राजनीति, समाज और प्रशासन में गहरा असर डालती है लेकिन यहां तो लोग अभिनेताओं को शादी-ब्याह में बुलाना भी उचित नहीं समझते हैं। जिन नवधनाढ्य लोग के पास पैसा है वे मौके-बे-मौके हिरोइनों को आमंत्रित कर रेन डांस कर लेते हैं और जिनके पास पैसा नहीं है वे हिरोइनों को आटो रिक्शा में घूमते हुए देख सकते हैं। आदिवासियों की समस्या, नक्सल समस्या, मजदूरों की समस्या, पलायन के दर्द से यहां की फिल्में पूरी तरह कटी हुई है।

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