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Friday, May 28, 2010

क्या फिर उभरेगा छत्तीसगढ़ियावाद

प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने बहुत कोशिश की थी कि छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ियावाद उभरे लेकिन तमाम तरह की कोशिशों के बाद भी वे नाकाम साबित हुए। अब एक बार फिर कांग्रेस से जुड़े एक फिल्म निर्माता ने अपनी नई फिल्म मया देदे मयारू में इसी वाद को भुनाने का प्रयास किया है। हालांकि यह फिल्म अभी प्रदर्शित नहीं हुई है लेकिन जानकारों का कहना है कि फिल्म के प्रदर्शन के बाद छत्तीसगढ़ियावाद को लेकर विचार-विमर्श का दौर प्रारंभ हो सकता है। यदि विवाद होता है तो फिल्म को नुकसान होगा या लाभ यह देखना दिलचस्प होगा।


छत्तीसगढ़ियावाद क्या है। छत्तीसगढ़ियावाद भीतरी और बाहरी होने की वकालत करता है। यह समस्या कोई अकेले छत्तीसगढ़ में ही है ऐसी बात नहीं है, वे प्रदेश जो नए-नए बने हैं वहां भी स्थानीय और बाहरी होने का झगड़ा जारी है। ज्यादा दूर न जाए तो मुबंई से बिहारियों को भगाने की बात एक तरह से वाद से ही ग्रसित थी। स्थानीय लोगों को हर काम में प्राथमिकता की बात एक हद तक तो सही हो सकती है लेकिन मामला जब नफरत और वैमनस्यता पर आकर टिक जाता है तो फिर उसमें एक महीन किस्म की सांप्रदायिकता का प्रवेश होते देर नहीं लगती। हालांकि छत्तीसगढ़ का यह रिकार्ड ही रहा है कि यहां लोगों ने कभी भी सांप्रदायिकता के डैने को फड़फड़ाने का अवसर नहीं दिया है।

कांग्रेसी सांसद चरणदास महंत के निकटतम समझने जाने वाले निर्माता-निर्देशक ने अपनी कहानी में कंठी ठेठवार व अन्य लोगों के माध्यम से गांव के चौटाला परिवार व अन्य लोगों के बीच खंदक की लड़ाई दिखाई है। स्थानीय और बाहरी की लड़ाई का भाव यही है कि जितने बाहरी लोग होते हैं वे सब बुरे होते हैं। यानी बाहरी लोग गांव की बहु-बेटियों की इज्जत लूटते हैं उन्हें बरबाद करते हैं। इस विरोध के चलते कंठी ठेठवार की हत्या हो जाती है। बाद में अपने पिता के साथ हुए अन्याय का बदला उसका बेटा यानी फिल्म का हीरो अनुज लेता है।

वैसे तो छत्तीसगढ़ के अधिकांश लोगों की भावना यही है कि यहां लगने वाले स्थानीय उद्योग धंधों में उन्हें अधिकार के साथ काम मिले लेकिन जब वे अधिकार के लिए आंदोलन करते हैं तो उन्हें निराशा होती है। इस निराशा के चलते छत्तीसगढ़ का एक बड़ा मजदूर तबका हर साल पलायन करने को मजबूर होता है। पलायन से उपजी से समस्या को बेहद हल्के अन्दाज में सतीश जैन ने अपनी फिल्म मोर छंइया-भुईया में दर्शाया था, लेकिन छत्तीसगढ़ राज्य बन जाने के बाद लगातार चल रहे उत्सव में फिल्म का संदेश कही दबकर रह गया था। इसके बाद किसी भी निर्माता-निर्देशक ने पलायन, मजदूर समस्या या नक्सलवाद को लेकर कोई फिल्म नहीं बनाई, और तो और हिरोइनों के आगे-पीछे खड़े होकर फोटो खिंचवाने वाले निर्देशकों ने प्रसिद्ध मजदूर नेता शंकरगुहा नियोगी को ही भुला दिया। जबकि महाराष्ट्र के इगतपुरी में रहने वाले संजीव करबेलकर ने छत्तीसगढ़ की सीमा से लगे मध्यप्रदेश के बालाघाट में नंदिता दास को लेकर लाल सलाम नामक फिल्म ही बना डाली थी। प्रसिद्ध फिल्म निर्माता एन चंद्रा ने भी अपनी एक फिल्म में शंकरगुहा नियोगी जैसा एक कैरेक्टर पैदा किया था। दस-बीस लाख लगाकर करोड़ो पीटने वाले निर्माता-निर्देशकों ने नक्सलवाद,शोषण, पलायन,भाई-भतीजावाद और गांव-गांव में घुस आई राजनीति से होने नुकसान से जैसे किनारा कर लिया है, और तो और इन विषयों पर मीडियाकर्मियों ने भी एक तरह से चुप्पी साध ली है। छत्तीसगढ़ के दलाल किस्म के मीडियाकर्मियों का अधिकांश समय भी इन दिनों फिल्मी पार्टियों में हिरोइनों से हाथ मिलाने, चीयर्स करते हुए चिकन-चिल्ली खाने में बीत रहा हैं। कुछ तो हिरोइनों को चांदनी की श्रीदेवी और करण अर्जुन की राखी बना देने का झांसा देकर बकायदा रकम भी ऐंठ रहे हैं। दलालनुमा लोगों ने अपने ब्लाग पर भी गंदगी फैला रखी है।
जल्द ही एक और फिल्म टूरा रिक्शावाला (रिक्शा चलाने वाला लड़का) भी आने वाली है। वैसे तो पूरी फिल्म में एक रिक्शेवाले का एक विधायक की लड़की से प्यार ही दिखाया गया है लेकिन माना जा रहा है कि इस फिल्म के बाद भी छत्तीसगढ़ियावाद उभर सकता है। छत्तीसगढ़ का मजदूर या गरीब आदमी बहुत कम रिक्शा चलाता है, रिक्शा चलाने का काम छत्तीसगढ़ से सटे एक प्रांत के लोग ज्यादा करते हैं। यदि विधायक की लड़की छत्तीसगढ़ के मूल आदमी को दिल न देकर दीगर प्रांत के लड़के को दिल देगी तो फिर कैसा वाद जन्म लेगा यह आसानी से सोचा जा सकता है। क्या छत्तीसगढ़ का आदमी हर तरफ से अपनी उपेक्षा के बाद भी चिल्लाएगा- सबले बढ़िया-छत्तीसगढ़िया।

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