तो मित्रों ज्ञानदत्त के इस अनाम चमचे का डर देखिए कि वह कौन है और क्या करता है इसका कोई उल्लेख ही नहीं करता है। अनाम प्रवक्ता का कोई प्रोफाइल उपलब्ध नहीं है। मैं हर बार कहता हूं आज फिर इस बात को दोहराता हूं कि मर्द के बच्चे जो भी काम करते हैं अपना नाम बताकर करते हैं और टिप्पणियों के दरवाजे के पास केयरफ्री का पैकेट नहीं रखते हैं, लेकिन श्रीमानजी को शौक है तो मैं क्या कर सकता हूं। बहरहाल श्रीमानजी ने अपनी एक कथित गुस्से में लिखी गई पोस्ट के जरिए यह बताने का प्रयास किया है कि ज्ञानदत्त क्यों महान है। हम उन्हें देश का सबसे महान लेखक क्यों और किसलिए माने। हिन्दी का ब्लागजगत उनके अप्रतिम योगदान को सदियों तक.. झील के उस पार भी क्यों और क्यों याद कर टेसू बहाता रहे। वे गुलशननंदा से आगे क्यों है और भावनाओं के कुशल चितेरे रानू से पीछे क्यो हैं आदि.. आदि। ( पाठकों को थोड़ा भ्रम हो सकता है लेकिन जो समझदार ब्लागर हैं वे श्रीमान एक हजार आठ सौ चालीस जी की पोस्ट पढ़ने के बाद यह समझ ही जाएंगे कि भाव कुछ ऐसा ही है)
श्रीमानजी ने हमें यह समझाने की कोशिश की है कि समीरजी का कौन सा पक्ष मजबूत है और कौन सा कमजोर। इसी तरह फिल्म शोले में लोगों की हजामत बनाने वाले हरिराम के करीबी (भाइयों... इधर की बात उधर करने वाले) समझे जाने वाले एक अबूझे लेखक के बारे में भी उन्होंने यह बताने का प्रयास किया है कि इतिहास उनके ऊपर धूल की परत क्यों नहीं जमने देगा। श्रीमान 1 हजार आठ सौ चालीस ने दोनों लेखकों की एक भी रचना का जिक्र नहीं किया। यदि बात रचनाकर्म पर होती तो शायद सबको अच्छा लगता। खैर.. जब संजय दत्त के करीबी ज्ञानदत्त ने दोनों लेखकों की रचनाओं पर चर्चा नहीं की तो उनका चमचा कैसे कर सकता था। वैसे भी कुकुरमुत्तों से यह अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए कि वे छाता बनकर किसी को बरसात में भींगने से बचा सकते हैं।
मैं जानता हूं कि चमचा शब्द चमचे को ठीक नहीं लग रहा होगा। अपनी टिप्पणियों व अन्य लोगों से भेजी गई विज्ञप्तियों में चमचा एक बात जरूर कहेगा कि आप भी तो समीरलाल जी के चमचे हो। तो चमचे महोदय मैं आपके कहने से पहले स्पष्ट कर दूं कि चमचा तो मैं कभी किसी का नहीं रहा लेकिन यह बात साफ है कि अपने भीतर बैठे हुए वकील की बात मैं कभी-कभी सुन लेता हूं। अब यह मत सोचने लगा कि मैं वकालत करता हूं। सच्चाई यह है कि हर आदमी के भीतर एक वकील बैठा तो होता ही है। कईयों के भीतर न्यायाधीश बैठा रहता है।
जी हां.. ज्ञानदत्त के भीतर जो न्यायाधीश बैठा हुआ है, विरोध उसका किया जा रहा है। अब ज्ञानदत्त उसे निजी मान बैठे हैं तो उसमें मेरी क्या गलती है। कई बार उम्र बीत जाने के बाद लोगों को अक्ल नहीं आ पाती है तो उसमें मेरा क्या कसूर।
आपने अपनी पोस्ट में लिखा है कि ज्ञानदत्त का एक विशिष्ट पाठक वर्ग है जो कहीं नहीं जाने वाला। जी हां.. यह बात तो आपने सही लिखी। लोगों की पोस्टों को नापसन्द का चटका लगा-लगाकर अपनी कूड़ा करकट जैसी पोस्टों को आगे बढ़ाने वाला विशिष्ट पाठक वर्ग भला ज्ञानदत्त को क्यों छोड़ेगा। वैसे तो वेदप्रकाश शर्मा, जेम्स हेडली चेईज और मस्तराम के भी अपने पाठक हैं। वे भी उन्हें कहीं छोड़कर नहीं जाते। अब यह मत कहने लगा कि जो आदमी मस्तराम कपूर के बारे में लिख रहा है वह कितना गंदा है आदि.. आदि। तो मैं यह कह रहा था कि मस्तराम के भी अपने पाठक हैं और वे पाठक भी जब जैसी जरूरत होती है बस स्टैंड पहुंचने के साथ-साथ उस डाक्टर के पास भी पहुंच जाते हैं जिनके बैनर पर साफ-साफ लिखा होता है-इलाज के पहले वैसा.. और इलाज के बाद ऐसा। महोदय मुझे ज्ञानदत्त की घटिया किस्म की उत्कृष्ठता और चील जैसी ऊंचाई छूनी भी नहीं हैं। ज्ञानदत्तजी आपको ऊंचाई मुबारक हो और विशिष्ट किस्म के पाठक वर्ग भी।
चमचे ने जिन तीन-चार लोगों की पोस्टों का जिक्र किया है उनके बारे में यह भी लिखा है कि उन्होंने अपने कैरियर की सबसे महत्वपूर्ण पोस्ट ज्ञानदत्त का नाम लेकर ही लिखी है। बाकी के बारे में तो मैं नहीं जानता लेकिन यदि आप यह सोचते हैं कि हम लोग महत्वपूर्ण पोस्ट लिख सकते हैं तो फिर हमारी पोस्ट कचरा कैसे हो गई। या पोस्ट महत्वपूर्ण होगी या फिर कचरा। दो बातें एक साथ नहीं हो सकती। लगता है आपकी भी मानसिक हलचल कुछ खराब हो गई है।
रहा सवाल मीनाबाजार की फोटो चस्पा करने का। ज्ञानदत्त ने अपने ब्लाग पर जो अपनी फोटो लगाई है उसके बारे मैं कोई नफरत के लिहाज से नहीं बोल रहा हूं। कुछ समय पहले एक साक्षात्कार के सिलसिले में मेरी मुलाकात एक प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक से हुई थी। उस मनोवैज्ञानिक ने मुझे बताया था कि आदमी की फोटो खिंचाने की मुद्रा देखकर भी यह आसानी से समझा जा सकता है कि वह किस मनोदशा का है। जैसे अभिताभ के पुतले के पास खड़े होकर फोटो खिंचवाए तो साफ समझ लीजिए कि सामने वाला अभिताभ का भक्त नहीं भी है तो फिल्मों का शौक जरूर रखता है। जो आदमी हाथ में बदूंक रखकर फोटो खिंचवाता है तो उसके बारे में साफ है कि उसके भीतर या तो पुलिस इंस्पेक्टर बनने की भावना बैठी हुई है या फिर गैंगस्टर। यह दोनों नहीं भी है तो सामने वाला हिंसक हो सकता है। हां.. गाल पर हाथ रखकर फोटो खिंचवाने वाले लोगों के बारे में भी उन्होंने जानकारी दी थी। उस जानकारी के मुताबिक जो शख्स गाल पर हाथ रखकर सोचने का ढोंग करते हुए फोटो खिंचवाता है वह अपने आपको सत्यकथा का राइटर समझता है। उसे लगता है कि दुनिया में सिर्फ वह ही सोच सकता है, बाकी लोगों को सोचना नहीं आता। जो आदमी गाल पर हाथ रखकर अचानक फोटोजनिक मुद्रा में आकाश की ओर तांकने लगता है, उसे जिन्दगी में कुछ नहीं मिला है। जो गाल पर हाथ रखकर जमीन की ओर देखने लगे तो समझिए ऐसा शख्स अपने किए पर शर्मिंदा है। हो सकता है कि मनोवैज्ञानिक की बातें पूरी तरह सही न हो लेकिन दिल कहता है कि मैं इसे सही मान ही लूं।
1- ज्ञानदत्त को अपना बाप मानिए उसे हमारा बाप बनाने की कोशिश मत करो।
2- बोलने की आजादी सबको है। हम भी उसी आजादी को ध्यान में ऱखकर बोल रहे हैं। जब देश गुलाम नहीं है तो फिर अपना नाम-पता वगैरह लेकर मुकाबला करो यार। (अब यह मत कह देना कि बाकी लोग क्या कर रहे हैं)
3- हिन्दी में अंग्रेजी ठूंसने वाले को आप इसलिए सही ठहरा सकते हो क्योंकि हिन्दी भाषा के प्रति आपका क्या सम्मान है उसका अन्दाजा आपकी पोस्ट को देखकर हो गया है। हिन्दी हमारी मातृभाषा है। क्या मातृभाषा का रेप अंग्रेजी कर लेगी। तुमने चूडियां पहनी होगी.। न अंग्रेजी रेप करेगी न अंग्रेज की औलादों को इसका हक दिया जाएगा।
4- बाकी.. गाय पर लिखो, कुत्ते पर लिखो, फोंडे पर लिखो.. फुंसी पर लिखो हमारे बाप का क्या जाता है। मित्रो... ज्ञानदत्त के अनाम चमचे ने ज्ञानदत्त की तरफ से एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर उनका अपना पक्ष रखने की भरपूर कोशिश की है।
5- मेरा सवाल यह है कि तथाकथित प्रवक्ता को पक्ष ऱखने में 28 घंटे का समय क्यों लगा। जब देखा गया कि चहुं ओर से थू-थू हो रही है तो चमचे की आड़ लेकर विद्धान (कथित) को आना पड़ा।
सियासत की मगर बाजीगरी देखी नहीं जाती।
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